मेरी इनायतों के तलबगार आ गए रहमत पुकार उट्ठी गुनहगार आ गए इक लम्हा-ए-सुकून मिला मुद्दतों के बाद उस को भी छीनने मिरे ग़म-ख़्वार आ गए हम ना-सिपास लोग कहाँ जा के अब रहें बस्ती में सारे शहर के हुशियार आ गए इक शख़्स कर रहा था ग़म-ए-इश्क़ का इलाज हैरत से देखने उसे बीमार आ गए बे-मंज़री शिकस्ता-दिली खोखली हँसी ये शहर-ए-आरज़ू है तो बे-कार आ गए दो-चार ही क़दम तो चले चैन से 'शमीम' फिर उस के बाद रास्ते दुश्वार आ गए