मिरी ख़ाक नूर ही नूर है कि हरीफ़-ए-जल्वा-ए-तूर है दिल-ए-बे-क़रार में तू ने क्या ये चराग़-ए-इश्क़ जला दिया मुझे फ़िक्र-ए-दौर-ए-ख़िज़ाँ हो क्या कि मैं ना-शनास-ए-बहार हूँ ग़म-ए-दिल का शुक्र-गुज़ार हूँ मुझे दर्स-ए-ज़ीस्त सिखा दिया है नतीजा-ख़ेज़ मिरी फ़ुग़ाँ कि ये दिल-जलों की है दास्ताँ करें अंजुमन में अगर बयाँ तो जहाँ में हश्र उठा दिया जो जहाँ में नक़्श-ए-जमील है तिरी शोख़ियों का क़तील है ये तो खेल-ए-रब्ब-ए-जलील है कि बना के ख़ुद ही मिटा दिया जिसे इश्क़ कहते हैं हक़-निगर मिरी ख़ल्वतों का है चारागर किसी दिल के साज़ को छेड़ कर कोई नग़्मा उस ने सुना दिया हो ख़मोश अब तो फ़साना-ख़्वाँ नहीं अच्छा सब्र का इम्तिहाँ कि सुना के दर्द की दास्ताँ किसी ग़म-ज़दा को रुला दिया मैं हूँ एक ‘साइब’-ए-बे-नवा मिरा दिल है कितना बुझा हुआ जो कभी था मैं ने सुना हुआ तिरे इश्क़ ने वो दिखा दिया