मेरी मायूस नज़रों को तिरा दीदार हो जाए तो ये सोई हुई तक़दीर फिर बेदार हो जाए क़यामत की कशिश है तुझ में जो भी इक नज़र देखे वो तुझ पर जान देने के लिए तय्यार हो जाए तिरा ग़म है मता-ए-ज़ीस्त ये मैं भी समझता हूँ मगर वो क्या करे जो ज़ीस्त से बेज़ार हो जाए तुम्हारे दर पे मैं कब से लगाए आस बैठा हूँ इधर भी इक निगाह-ए-लुत्फ़ ऐ सरकार हो जाए उड़ाते हो हँसी 'फ़य्याज़' तुम मेरी मोहब्बत की मिरी सूरत तुम्हें भी इश्क़ का आज़ार हो जाए