रहे असीर-ए-क़फ़स आशियाँ न देख सके भरी बहार में हम गुल्सिताँ न देख सके बस इक झलक ही ने बेहोश कर दिया हम को तिरे जमाल की रानाइयाँ न देख सके दिल-ओ-जिगर तप-ए-फ़ुर्क़त में जल रहे हैं मगर कभी निकलता हुआ हम धुआँ न देख सके हमें तो जब से ये ज़ुल्मत-कदा नसीब हुआ कभी हम अपनी भी परछाइयाँ न देख सके हज़ार तरह से तदबीर की दिल-ए-नाशाद मगर कभी तुझे हम शादमाँ न देख सके रह-ए-तलब में रखे पाँव जब से ऐ 'फ़य्याज़' जुनून-ए-शौक़ में सूद-ओ-ज़ियाँ न देख सके