यही बहुत है जो इनआ'म इस सदी का है हमारी आँखों में आशोब आगही का है वो लम्हा फिर नहीं आया जो तेरे जैसा था ये सानेहा मिरे दिल की शिकस्तगी का है इसी से पाया है मैं ने ग़ज़ल का सरमाया वो एक ज़ख़्म जो पलकों पे रौशनी का है नफ़स नफ़स जो मिरी चाहतों में रच न सका सबब कहाँ वो भला मेरी ज़िंदगी का है मिरी शबों का है दीबाचा उस की लौ में 'ज़िया' ये इक चराग़ जो सूरज तिरी गली का है