पर्बत टीले बंद मकानों जैसे थे और जो पत्थर थे इंसानों जैसे थे दिन में सारी बस्ती मेले जैसी थी रात के मंज़र क़ब्रिस्तानों जैसे थे बड़े बड़े महलों में रहने वाले लोग अपने घर में ख़ुद मेहमानों जैसे थे वादी का सिंगार पहाड़ी लड़की सा झरने तो अलमस्त जवानों जैसे थे कैसे कैसे दर्द छुपाए फिरते थे दिल भी क्या मख़्सूस ठिकानों जैसे थे