मिरी ज़िंदगी की सबील पर कहीं ख़ार था कहीं फूल था कभी चल के रुकना फ़ुज़ूल था कभी रुक के चलना फ़ुज़ूल था तही-दस्त मैं ही खड़ा रहा तिरी रह पे वर्ना ऐ ज़िंदगी किसी हाथ में कोई क़द्र थी किसी सर पे कोई उसूल था घने बरगदों की लताफ़तों पे ज़वाबितों की फ़सील थी मिरा ज़ख़्म जिस पे था मुन्कशिफ़ कोई ख़ार-दार बबूल था तिरे साथ जो कटी ज़िंदगी वो तिरी ही तरह सपाट थी न ग़म-ए-शिकस्त-ओ-तज़ी’ था न लिहाज़-ए-फ़त्ह-ओ-हुसूल था मिरा दिन था तुझ पे अयाँ अयाँ तिरी शब थी मुझ पे खुली खुली तिरा क़ुर्ब मुझ को अज़ीज़ था मिरा हिज्र तुझ को क़ुबूल था मैं बिखर बिखर के सिमट गया तू सिमट सिमट के बिखर गई मिरे पीछे तू भी थी मुज़्महिल तिरे पीछे मैं भी मलूल था