मीज़ान-ए-फ़न पे रख कर साँचे में ढालते हैं चश्म-ए-ग़ज़ल से शाइ'र काजल निकालते हैं दामन पे दाग़ उन के हम ने उन्हीं के देखे कीचड़ जो दूसरों पर अक्सर उछालते हैं अपनों ने तो गिराया हर बार हर डगर पर एहसाँ है दुश्मनों का हम को सँभालते हैं बीमार ख़्वाहिशों की तकमील के लिए ही इंसान उलझनों में क्यों ख़ुद को डालते हैं संजीदा हो के कब वो बातें मिरी सुनेंगे क्या कह रहे हो कह कर अक्सर जो टालते हैं 'ग़ालिब' सा 'मीर' जैसा अंदाज़ कब मिलेगा अल्फ़ाज़ के समुंदर हम भी खँगालते हैं शीशे के घर हैं जिन के अक्सर यहाँ वो 'सानी' पत्थर हमारी जानिब फिर क्यों उछालते हैं