मिज़ाज-ए-शहर जो तहरीर करने निकले हैं हम अपने आप को दिल-गीर करने निकले हैं निकल के ख़्वाब-सरा से बुझा के चश्म-ए-गुमाँ ख़याल-ओ-ख़्वाब को ता'बीर करने निकले हैं सजा के आँख में वहशत बदन पे वीरानी तिरे जमाल की तश्हीर करने निकले हैं जो दिन की भीड़ में हम से बिछड़ गई थी कहीं उस एक शाम को तस्वीर करने निकले हैं बहुत ही सादा हैं हम भी उठा के याद कोई गए दिनों को जो ज़ंजीर करने निकले हैं लिबास-ए-इश्क़ सजा कर बदन पे हम 'ख़ावर' तिलिस्म-ए-हुस्न को तस्ख़ीर करने निकले हैं