मिल ही जानी थी मुनासिब कोई क़ीमत मुझ को तू ने समझा है मगर माल-ए-ग़नीमत मुझ को मेरी नींदें ही सबब हैं मिरी बेदारी का मेरे ख़्वाबों से ही होती है अज़िय्यत मुझ को एक रिश्ते को बचाने के लिए आठों पहर करनी पड़ती है अमानत में ख़यानत मुझ को सोचता हूँ कि निकल आऊँ मैं बाहर घर से ढूँढती फिरती है कुछ रोज़ से शोहरत मुझ को मुझ से बढ़ कर ही नहीं कोई भी अब मेरा हरीफ़ ख़ुद से हर वक़्त ही रहती है शिकायत मुझ को अब तो हर लम्हा झुका है ये अना का पलड़ा महँगी पड़ने लगी अब मेरी शराफ़त मुझ को था करम कम ही कहाँ मुझ पे मिरे मालिक का देखने की ही मिली ना कभी फ़ुर्सत मुझ को ख़ुद को रख छोड़ा है अब मैं ने हवा पर 'वाहिद' ले के जाती है किधर देखिए क़िस्मत मुझ को