मिला था रोज़-ए-अज़ल ज़ौक़-ए-कामयाब मुझे मिरी नज़र ने किया ख़ुद ही इंतिख़ाब मुझे न ए'तिबार मिरे ज़र्फ़ का था साक़ी को कभी न भर के दिया साग़र-ए-शराब मुझे हवा-ए-दहर से बिखरा है दिल का शीराज़ा वरक़ वरक़ नज़र आती है ये किताब मुझे मैं अपनी ख़ामी-ए-तर्ज़-ए-बयाँ पे नादिम हूँ मिरा सवाल ही ख़ुद बन गया जवाब मुझे किया है दीदा-ए-अंजाम मैं ने आगह-ए-राज़ बिसात-ए-दहर 'मुनव्वर' है फ़र्श-ए-ख़्वाब मुझे