मुझ पे ऐसा कोई शे'र नाज़िल न हो जिस की हिद्दत मिरे ख़ूँ में शामिल न हो फ़िक्र ऐसे मुहीत-ए-सुख़न की करो जिस की अमवाज का कोई साहिल न हो आज इक बिन्त-ए-मरियम है आग़ोश में मुझ पे ऐ रूह-ए-क़ुद्स आज नाज़िल न हो बे-मुहाबा मिले हिज्र हो बा-विसाल कोई दीवार रस्ते में माइल न हो शाख़ पर है गुमाँ गुल से अंदेशा है ये भी ख़ंजर न हो ये भी क़ातिल न हो कारवान-ए-जुनूँ दे रहा है सदा जाँ हो प्यारी जिसे हम में शामिल न हो काश वो वक़्त भी आए दुनिया में जब ज़र पुकारे मगर कोई साइल न हो मेरी तन्हाई को मेरा मक़्सूम कर मेरी मंज़िल ज़माने की मंज़िल न हो हुक्म दे जान-ए-'सहबा' नई फ़िक्र का ये ग़ज़ल भी अगर तेरे क़ाबिल न हो