मिले सुराग़ तो मंज़िल का यूँ सुराग़ मिले कफ़-ए-हसीं पे जलाए कोई चराग़ मिले फ़ुज़ूल दूरी-ए-मंज़िल का ज़िक्र है यारो तड़प नहीं है तो मंज़िल का क्या सुराग़ मिले कली कली थी फ़सुर्दा उदास उदास थे फूल गुमान जिन पे हो जंगल का ऐसे बाग़ मिले निबाह कैसे दिल-ए-सादा उन से कर पाता क़दम थे ख़ाक पे और अर्श पर दिमाग़ मिले अजीब बात है दिल को न कर सकें रौशन मह-ओ-नुजूम सा रौशन जिन्हें दिमाग़ मिले लहू निचोड़ दें रग रग से और भर डालें मय-ए-नशात से ख़ाली अगर अयाग़ मिले मिरे लिए किसी दौलत से कम नहीं 'राज़ी' ख़ुशा-नसीब कि अहबाब ही से दाग़ मिले