था दाम-ए-हवस ही कुछ ऐसा वो लौट के आना भूल गया जो बस्ती बस्ती फिरता था वो घर का रस्ता भूल गया वो लम्हा कैसा लम्हा था जब उन से नज़र टकराई थी ये मंज़िल कौन सी मंज़िल है मैं होश में आना भूल गया ये बात सभी के इल्म में है और सारा ज़माना शाहिद है वो शख़्स ज़लील-ओ-ख़्वार हुआ जो दर्द का रिश्ता भूल गया वो सामने थे तो कह न सका जब लौट गए तो याद आया ये भूल गया वो भूल गया मैं जाने क्या क्या भूल गया ख़ुश-फ़हमी कहाँ ले आई है अब मैं हूँ मिरी तन्हाई है मैं भूल गया था दुनिया को मुझ को भी ज़माना भूल गया औरों के लिए मरहम ले कर मैं गलियों गलियों भटका हूँ क्या कहिए मगर ख़ुद अपने ही ज़ख़्मों का मुदावा भूल गया नैरंगी-ए-आलम ने 'राज़ी' वो तल्ख़ हक़ाएक़ बख़्शे हैं वो अपनी कहानी भूल गए मैं अपना फ़साना भूल गया