मिली न फ़ुर्सत जहाँ हो ग़श से उठी जो कुछ भी नक़ाब-ए-आरिज़

मिली न फ़ुर्सत जहाँ हो ग़श से उठी जो कुछ भी नक़ाब-ए-आरिज़
मगर समझते नहीं अभी तक तुम अपना जल्वा हिजाब-ए-आरिज़

न दश्त-ए-ऐमन में ज़िक्र उस का न तूर ही पर कभी ये चमका
न हो नज़र में जो तेरा जल्वा तो मेहर को दूँ ख़िताब-ए-आरिज़

तसव्वुर उन का है मुझ को हर-दम न शब को तस्कीं न चैन दिन को
होई हैं औक़ात मेरे बिल्कुल तबाह काकुल ख़राब-ए-आरिज़

ख़ुशी की कसरत अगर हो उन को तो बन के आँखों में आएँ आँसू
ज़ियादा याँ तक हैं अपनी हद से न ठहरे आरिज़ में आब-ए-आरिज़

ये रंग-ए-बज़्म-ए-अदू तो देखो कि लाख पर्दे किए हैं हाइल
नक़ाब उठाए वो गो हैं बैठे मगर है ग़ैरत हिजाब-ए-आरिज़

इलाही मेरी जिगर-फ़गारी रक़ीब सुन कर उन्हें सुना दें
वो मस्लहत ही समझ के आएँ दिखाने को माहताब-ए-आरिज़

नज़र फ़ज़ा है जहाँ है जल्वा तुम्हारा एहसान सब पे होगा
उठाओ आरिज़ से तुम जो पर्दा तो घट न जाएगी ताब-ए-आरिज़

ये नाम जिस का क़मर रखा है मुझी से इक दाग़ ले गया है
समझ तो देखो समझ रहा है फ़लक उसी को जवाब-ए-आरिज़

कहीं इलाही शब-ए-जुदाई तमाम होने को आ गई है
नुमूद-ए-सुब्ह-ए-जज़ा हो शायद कि मैं ने देखा है ख़्वाब-ए-आरिज़

हुई ये हाल-ए-ज़बूँ की शोहरत कि उस ने ख़जलत से मुँह छुपाया
बना है रंग-ए-शिकस्ता मेरा बहुत दिनों में नक़ाब-ए-आरिज़

न पूछो हम से कि क्या सबब है सियाह रोज़ी का अपनी 'सालिक'
चमक रहा है बहुत दिनों से अदू पे वो आफ़्ताब-ए-आरिज़


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