मिरी ख़ातिर में साक़ी कब तिरा पैमाना आता है कि याँ हर-दम ख़याल-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना आता है ठिकाने जुस्तुजू-ए-यार में किस किस के छूटे हैं कि बुलबुल बाग़ में और बज़्म में परवाना आता है शब-ए-फ़ुर्क़त उठा कर फ़ित्ना-ए-महशर से कहती है मुझे ज़ुल्फ़-ए-दराज़-ए-यार का अफ़्साना आता है निकल कर आँख से ग़ाएब नहीं होते हैं ये आँसू इसी पानी से भरता उम्र का पैमाना आता है इलाही लोग क्यूँ हो हो के ख़ुश फ़िरदौस जाते हैं मगर इस बाग़ से आगे कोई वीराना आता है दिल-ए-ज़ार और शस्त-ए-यार में इक राह है मख़्फ़ी ख़ता हो कर भी सीधा नावक-ए-जानाना आता है चला हूँ घर से उठ कर का'बे की जानिब मगर मुझ को तरद्दुद है कि रस्ते में मिरे मय-ख़ाना आता है मुझे गर्दिश में पाया दौरा-ए-चर्ख़-ए-बरीं काहे कि मेरे साथ चक्कर में मिरा काशाना आता है ये रग़बत है उसे अग़्यार से जब शे'र कहता है तो मज़मूँ भी ख़याल-ए-यार में बेगाना आता है तिरे कूचे में हो जाता है क्या इंसान पर जादू अभी हुशियार जाता है अभी दीवाना आता है गया जो इस ख़म-ए-गेसू में वाँ का हो रहा 'सालिक' ये हैरत है सलामत क्यूँ कि फिर कर शाना आता है