मुज़्महिल होने पे भी ख़ुद को जवाँ रखते हैं हम एक सर है जिस पे सातों आसमाँ रखते हैं हम हम गरेबाँ-चाक लोगों को तही-दामन न जान ले क़िमार-ए-आशिक़ी में नक़्द-ए-जाँ रखते हैं हम कोई तो आख़िर चला आएगा पुर्सिश के लिए तू न आएगा तो मर्ग-ए-ना-गहाँ रखते हैं हम एहतिराम-ए-ग़म से हैं सूखे जज़ीरों की तरह वर्ना इन आँखों में बहर-ए-बे-कराँ रखते हैं हम इश्क़ में ज़ौक़-ए-तकल्लुम है हलाकत-आफ़रीं आरज़ू भी एहतियातन बे-ज़बाँ रखते हैं हम मह-वशों के आरिज़ों में देखते हैं अपना अक्स अल्लाह अल्लाह अपना साया भी कहाँ रखते हैं हम लाख हों फैली हुई मंज़िल-ब-मंज़िल ज़ुल्मतें साथ अपने मशअ'ल-ए-हुस्न-ए-बुताँ रखते हैं हम