मिरा तो वक़्त घर से कूच ही का है सवाल सारे घर की ज़िंदगी का है यहाँ तो दोस्ती निभे न दुश्मनी ज़मीं है जिस की आसमाँ उसी का है तरस न जाए रक़्स-ओ-रम को भी कहीं वो दश्त जिस पे साया आदमी का है जो दिन न गुज़रे वो भी दिन गुज़ारना हमारा क्या ये सानेहा सभी का है ये इम्तिहाँ गराँ है और बहुत गराँ मगर ये कर्ब तो कभी कभी का है मिरे शिकस्त-जू शिकस्त खा गए ख़मोश हूँ कि दिन ही ख़ामुशी का है हर इब्तिदा को इंतिहा का है गुमाँ हर इंतिहा को ग़म किसी कमी का है