मिरे दाँतों की उम्र ऐ आरज़ू मुझ से भी छोटी थी उसी ने साथ छोड़ा दाँत-काटी जिन से रोटी थी शिकायत आरज़ू की बे किए नासेह नहीं बनती ये सब दिल-जूइयाँ ज़ाहिर की थी बातिन की खोटी थी हवा दर दर लिए फिरती है अब तो मेरी मिट्टी को ये है वो ख़ाक जो इक दिन तिरे क़दमों पे लोटी थी बहुत गहरे न हों ओछे सही चरके तो पूरे हैं ख़ता क़ातिल की क्या है इक दरा तलवार छोटी थी पहाड़ उस पर गिरा ऐ आसमाँ क्या बस चले वर्ना हमारे आशियाँ की शाख़ सब शाख़ों से मोटी थी बला कर तू ने ऐ हस्ती यहाँ की ख़ूब मेहमानी वही करते हैं फ़ाक़े जिन के दम से दस की रोटी थी पहुँच जाती थी उस उस घर में जिस जिस घर का पासा था जो सच पूछो तो मेरी आरज़ू चौसर की गोटी थी न क्यूँ कर तेरी यकताई का कलिमा नक़्श हो दिल पर सबक़ की तरह बरसों ये इबारत हम ने घोटी थी मुझे ख़ुश ख़ुश जो पाया जल के क्या जल्दी हुई रुख़्सत शब-ए-वस्ल ऐ फ़लक सब कुछ सही निय्यत की छोटी थी ये सच है 'शाद' क्या था कुछ न था लेकिन तुम्हारा था न समझा तुम ने ऐ बारीक-बीनो बात मोटी थी