मिरे वजूद को मौजूदगी दिखाती थी दिए की लौ मुझे दीवार का बताती थी मैं जब ज़मीन से ज़ोहरा पे जाया करता था तू काएनात की ज़ंजीर खींची जाती थी वो क्या किरन थी जो आती थी मेरे सीने में तुम्हारी धूप जब इस जल्द तक न आती थी मैं उस को ख़्वाब में कुछ ऐसे देखा करता था तमाम रात वो सोते में मुस्कुराती थी अजीब वक़्त था इस बेंच पर बग़ैचा में कि दिन गया नहीं होता था रात आती थी