मिरे वजूद को उस ने अजब कमाल दिया कि मुश्त-ए-ख़ाक था अफ़्लाक पर उछाल दिया मकाँ को झूटे मकीनों से पाक करना था सो मैं ने इस से हर उम्मीद को निकाल दिया मिरी तलब में तकल्लुफ़ भी इंकिसार भी था वो नुक्ता-संज था सब मेरे हस्ब-ए-हाल दिया बदल के रख दिए हिज्र ओ विसाल के मफ़्हूम मुझे तो उस ने बड़ी कश्मकश में डाल दिया मैं उस की बंदा-नवाज़ी के रम्ज़ जानता हूँ कि रिज़्क-ए-शौक़ दिया लुक़मा-ए-हलाल दिया मिरे ख़ुदा ने अता की मुझे ज़बाँ और फिर ज़बाँ को मर्तबा-ए-जुर्अत-ए-सवाल दिया