साहिब-ए-जाम-ओ-सुबू अहल-ए-करम आते हैं हम से दीवाने मगर दहर में कम आते हैं क्या सबब है कि तिरी बज़्म में ऐ जान-ए-हयात जब भी आते हैं मिरे हिस्से में ग़म आते हैं अब न ज़ख़्मों की ज़रूरत है न मरहम की तलाश ये मराहिल भी रह-ए-इश्क़ में कम आते हैं जब भी मैं शिद्दत-ए-तन्हाई से घबराया हूँ एक आवाज़ सी आई है कि हम आते हैं उन से किस तरह मुलाक़ात करें हम आख़िर वो कहाँ होते हैं जब होश में हम आते हैं ये मेरे अज़्म-ए-मुसलसल की कशिश है 'अख़्तर' मेरी जानिब मिरी मंज़िल के क़दम आते हैं