मिसों के सामने क्या मज़हबी बहाना चले चलेंगे हम भी उसी रुख़ जिधर ज़माना चले ख़ुदा के वास्ते साक़ी यही निगाह-ए-करम चला है दौर तो फिर क्यों रुके चला न चले खिला है बाग़-ए-क़नाअ'त में ग़ुंचा-ए-ख़ातिर ख़ुदा बचाए कहीं हिर्स की हवा न चले फ़रोग़ 'इश्क़ का बे-आह के नहीं मुमकिन न फैले बू-ए-गुलिस्ताँ अगर हवा न चले खुले किवाड़ जो कमरे के फिर किसी को क्या ये हुक्म भी तो हुआ है कि रास्ता न चले उमीद-ए-हूर में मुस्लिम तो हो गया हूँ मगर ख़ुदा ही है कि जो मुझ से ये पंजगाना चले ख़ुदी की हिस से भी होता है इंतिशार 'अकबर' कहाँ रहूँ कि मुझे भी मिरा पता न चले