मिटा चुका रह-ए-उल्फ़त में ज़िंदगानी को ज़माना अब तो सुनेगा मिरी कहानी को नज़र न आया सुकूँ का कहीं कोई लम्हा बहुत क़रीब से देखा है ज़िंदगानी को सुनेगा कौन किसे होगी इस क़दर फ़ुर्सत तवील कर तो रहे हो मिरी कहानी को वो मस्त मस्त निगाहें असर जमा ही गईं अलग शराब से करता रहा मैं पानी को कभी तो उन की तवज्जोह मिरी तरफ़ होगी हज़ार बार मैं दोहराऊँगा कहानी को तिरे ख़याल से ग़ाफ़िल कहीं न हो जाऊँ मैं छूते डरता हूँ अब जाम-ए-अर्ग़वानी को हयात-ए-नौ जिसे बख़्शी थी 'नूर' मैं ने कभी मिटा रहा है वही मेरी ज़िंदगानी को