मिटे हैं जैसे हम इक शख़्स की ख़ुशी के लिए मिटा न होगा कोई इस तरह किसी के लिए कभी किसी के भरोसे पे जंग मत करना कोई किसी से उलझता नहीं किसी के लिए वो फ़ैज़ उठाता रहा मेरी सादा-लौही का फ़रेब खाता रहा मैं ख़ुद-आगही के लिए गुलों का खिल के बिखरना तो अम्र-ए-लाज़िम है दुआएँ माँग दिलों की शगुफ़्तगी के लिए ये और बात पतंगों को ख़ाक होना पड़ा चराग़ हम ने जलाए थे रौशनी के लिए फिर उस के बाद तुम्हारा सुराग़ खो बैठा ठहर गया था मैं रस्ते में दो घड़ी के लिए उलझ गए हैं ख़ुद अपने ही मसअलों में 'शकील' चुने गए थे हम औरों की रहबरी के लिए