मिट्टी पे कोई नक़्श भी उभरा न रहेगा गिर जाएगी दीवार तो साया न रहेगा आएगा नज़र धूप में छत पर वो खुले सर गलियों में ये रातों का निकलना न रहेगा शाख़ों से नुमू पत्तों से छिन जाएगी ख़ुश्बू कट जाएगा जब पेड़ तो क्या क्या न रहेगा सोचूँ तो कोई लफ़्ज़ मिलेगा न तिरे नाम लिक्खूंगा तो काग़ज़ कोई सादा न रहेगा बिखरे हुए चेहरों में खड़ा सोच रहा हूँ आँखें न रहेंगी कि तमाशा न रहेगा मिट जाऊँगा लिखते हुए रूदाद शब-ओ-रोज़ जब मैं न रहूँगा मिरा अफ़्साना रहेगा खो जाएगी ख़ामोशी में आवाज़-ए-जरस भी राहों में कहीं नक़्श-ए-कफ़-ए-पा न रहेगा आगे भी दिखाई नहीं देगी कोई मंज़िल और घर को पलटने का भी रस्ता न रहेगा मैं हर्फ़ हूँ लिख लो मुझे आवाज़ हूँ सुन लो आते हैं वो दिन जब कोई मुझ सा न रहेगा