ज़ोर से चीख़ते पुकारते हैं कुछ नए से ज़बाँ पे आबले हैं देख सकते नहीं ज़रा सा हम तो चलो आओ ख़्वाब लूटते हैं डाल रक्खे हैं कब से कीसे में सिर्फ़ अपनों में रंज बाँटने हैं अपने हर मोड़ पर न जाने क्यों रौशनी के सियाह क़ुमक़ुमे हैं साथ दो पल गुज़ार के फिर से याद इक गुम-शुदा सी ढूँडते हैं घर हो के भी सफ़र अधूरा है क़द्र के भी अजीब फ़ैसले हैं एक सफ़ में खड़े हुए हम सब अपने अपने बुतों को पूजते हैं चाय दो कप उंडेल कर 'मंसूर' आज भी उस की राह देखते हैं