मोह में सज्दे में पर नक़्श मेरा बार रहा उस आस्ताँ पे मिरी ख़ाक से ग़ुबार रहा जुनूँ में अब के मुझे अपने दिल का ग़म है पे हैफ़ ख़बर ली जब कि न जामे में एक तार रहा बशर है वो पे खुला जब से उस का दाम-ए-ज़ुल्फ़ सर-ए-रह उस के फ़रिश्ते ही का शिकार रहा कभू न आँखों में आया वो शोख़ ख़्वाब की तरह तमाम-उम्र हमें उस का इंतिज़ार रहा शराब-ए-ऐश मयस्सर हुई जिसे इक शब फिर उस को रोज़-ए-क़यामत तलक ख़ुमार रहा बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला वो दिल कि जिस का ख़ुदाई में इख़्तियार रहा वो दिल कि शाम-ओ-सहर जैसे पक्का फोड़ा था वो दिल कि जिस से हमेशा जिगर-फ़िगार रहा तमाम-उम्र गई उस पे हाथ रखते हमें वो दर्दनाक अलर्रग़्म बे-क़रार रहा सितम में ग़म में सर-अंजाम उस का क्या कहिए हज़ारों हसरतें थीं तिस पे जी को मार रहा बहा तो ख़ून हो आँखों की राह बह निकला रहा जो सीना-ए-सोज़ाँ में दाग़दार रहा सो उस को हम से फ़रामोश-कारियों ले गए कि उस से क़तरा-ए-ख़ूँ भी न यादगार रहा गली में उस की गया सो गया न बोला फिर मैं 'मीर' 'मीर' कर उस को बहुत पुकार रहा