टुकड़ा जहाँ गिरा जिगर-ए-चाक-चाक का याक़ूत सा दमकने लगा रंग ख़ाक का ले जाते हैं उठा के मलक उस की नाश को ये मरतबा है तेग़-ए-निगह के हलाक का ऐ बाग़बाँ न मुझ से हो आज़ुर्दा मैं चला इक दम ख़ुश आ गया था मुझे साया ताक का मिलने में कितने गर्म हैं ये हाए देखियो कुश्ता हूँ मैं तो शोला-रुख़ों के तपाक का ऐ शोला अपनी गर्म-रवी पर न भूलियो आलम है और आह-ए-दिल-ए-सोज़नाक का आता है अपने कुश्ते की तुर्बत पे जब वो शोख़ इक नारा वाँ से निकलते है रूही-फ़िदाक का शुक्र-ए-ख़ुदा कि नाम है इस्मत का 'मुसहफ़ी' रोज़-ए-जज़ा गवाह मिरे इश्क़-ए-पाक का