मोहब्बत चारा-साज़-ए-दर्द-ए-फ़ुर्क़त होती जाती है मिरी वहशत मुझे सामान-ए-राहत होती जाती है उधर वो मुन्फ़इल नज़रें इधर ये मुज़्तरिब नाले नदामत होती जाती है शिकायत होती जाती है नज़र आते हैं वो आमादा-ए-लुत्फ़-ओ-करम ख़ुद ही मुझे भी आज अर्ज़-ए-ग़म की हिम्मत होती जाती है जबीं ख़ुद आस्तान-ए-बंदगी को ढूँढ लेती है मोहब्बत ख़ुद नहीं होती मोहब्बत होती जाती है नहीं खुलता ये उक़्दा जोश-ए-वहशत में नहीं खुलता कि क्यों बेज़ार मंज़िल से तबीअ'त होती जाती है किसी ने याद फ़रमाया है क्या फिर अपनी महफ़िल में कि अज़-ख़ुद बैठे बैठे ग़ैर हालत होती जाती है चली आती हैं पैहम हिचकियाँ बीमार-ए-उलफ़त को मुरत्तब ख़ुद-बख़ुद ग़म की हिकायत होती जाती है शिकायत इश्क़ को है हुस्न के पैहम तग़ाफ़ुल की क़यामत में ये इक ताज़ा क़यामत होती जाती है मुरत्तब हो गई फ़र्द-ए-अमल यूँ ख़ुद-बख़ुद 'कौकब' मिरे दीवान-ए-शे'री की किताबत होती जाती हे