मोहब्बत जाग उट्ठी रग रग में अरमानों को नींद आई हक़ीक़त ने नक़ाब उल्टी तो अफ़्सानों को नींद आई छलकती ही रही मय दौर चलता ही रहा लेकिन रुकी गर्दिश उन आँखों की तो पैमानों को नींद आई बिछे थे फूल भी हर मोड़ पर फ़स्ल-ए-बहाराँ में मगर आई तो काँटों पर ही दीवानों को नींद आई सर-ए-महफ़िल रहा इक रतजगे का सा समाँ शब भर पलक झपकी न शम्ओं' की न परवानों को नींद आई तजल्ली थी न ताबानी तसव्वुर था न परतव था तिरे जाते ही सारे आईना-ख़ानों को नींद आई मोहब्बत थी फ़रोज़ाँ दर्द का एहसास था जब तक हुई इंसानियत रुख़्सत तो इंसानों को नींद आई शब हिज्राँ का सन्नाटा है तारी बंद हैं आँखें ये मौत आई कि तेरे सोख़्ता-जानों को नींद आई मुसलसल इश्क़ में आलम रहा शब-ज़िंदा-दारी का सर-ए-मक़्तल पहुँच कर तेरे दीवानों को नींद आई घनी है किस क़दर छाँव 'ज़िया' कुफ़्र-ए-मोहब्बत की मगर इस छाँव में कितने ही ईमानों को नींद आई