मोहब्बत का सज्दा अदा हो न जाए कहीं तू किसी का ख़ुदा हो न जाए ख़लिश ग़म की दिल से जुदा हो न जाए कहीं ज़िंदगी बे-मज़ा हो न जाए मोहब्बत मिरी बे-ख़ुदा हो न जाए कहीं फिर वो ज़ालिम ख़फ़ा हो न जाए करे भी तो क्या आह मजबूर-ए-उल्फ़त अगर राह-ए-ग़म में फ़ना हो न जाए ख़ुदा के लिए इल्तिजा यूँ न ठुकरा कहीं कोई बे-आसरा हो न जाए न इतने भी सदमे दो पामाल-ए-ग़म को कहीं साज़-ए-दिल बे-सदा हो न जाए न करना कभी अर्ज़-ए-ग़म उन से 'साहिर' कहीं इल्तिजा भी गिला हो न जाए