मोहब्बत का शिकस्ता-पन नज़र क्या आए बाहर से ये दीमक तो बदन को चाटती रहती है अंदर से तुम्हारे हिज्र का ये दर्द-ए-सर तो मुस्तक़िल ठहरा मुझे लगता है जाँ ले के ये उतरेगा मेरे सर से मिरी तरतीब में सहरा-मिज़ाजी कार-फ़रमा है बुझेगी प्यास क्या मेरी भला अश्कों के सागर से तेरी दहलीज़ पे मैं मुंतज़िर अपनी न रह जाऊँ यही सब सोचती हूँ लौट आती हूँ तिरे दर से मिरी ख़ामोशियों को चीख़ बनने का बहुत डर है कोई आवाज़ उठने लग पड़ी है मेरे अंदर से 'समीना' मसअला ये है मिरी क़ामत से कमतर है हमेशा प्यास पी कर लौट आती हूँ समुंदर से