नग़्मा यूँ साज़ में तड़पा मिरी जाँ हो जैसे मेरा दम हो मिरे सीने की फ़ुग़ाँ हो जैसे यक-ब-यक रूह में उट्ठा है वो तूफ़ान-ए-ख़मोश वादी-ए-गुल में नसीम-ए-गुज़राँ हो जैसे नग़्मा-ओ-रक़्स हुई जाती है हर मौज-ए-ख़याल चाँदनी-रात में दरिया का समाँ हो जैसे क्या सुनाती है ये साज़ों की सदा-ए-दिल-सोज़ कुछ हमीं दर्द-नसीबों का बयाँ हो जैसे यूँ तिरी चश्म-ए-मुदारात पे दिल भोला है नश्शा-ए-मय पे जवानी का गुमाँ हो जैसे दिल है यूँ बे-दिली-ए-होश के हाथों लर्ज़ां कोई क़ातिल से तलब-गार-ए-अमाँ हो जैसे राह जीने की कहाँ सोख़्ता-जानी के बग़ैर हर नफ़स शो'ला-ए-ख़ातिर का धुआँ हो जैसे ख़ूब नक़्शा है मिरे फ़िक्र की जौलानी का कोई कम-बख़्त असीरी में जवाँ हो जैसे उस ने यूँ अर्ज़-ए-मोहब्बत पे सँभल कर देखा उस के दिल को तो ख़बर हो न गुमाँ हो जैसे इक नवा हासिल-ए-सद-अहद-ए-फ़ुग़ाँ है 'हक़्क़ी' बू-ए-गुल लाख बहारों का निशाँ हो जैसे