मोहब्बत ख़ुद ही अपनी पर्दा-दार-ए-राज़ होती है जो दिल पर चोट लगती है वो बे-आवाज़ होती है ब-ज़ाहिर नग़्मा-ए-हस्ती भला मालूम होता है मगर हर साँस आवाज़-ए-शिकस्त-ए-साज़ होती है दिलों के मेल में रुस्वाइयाँ भी हो के रहती है कि टकराते हैं जब साग़र तो इक आवाज़ होती है न हँसने का कोई मक़्सद न रोने का कोई मतलब वो दीवाने हैं जिन की ज़िंदगी इक राज़ होती है छुपाए से लब-ओ-लहजा मोहब्बत का नहीं छुपता ज़माने से बहुत बदली हुई आवाज़ होती है मैं रोता हूँ तो कोई दाद अश्कों की नहीं देता मैं हँसता हूँ तो दुनिया गोश-बर-आवाज़ होती है गुनहगारों को ऐ 'शौक़' इक यही तस्कीन क्या कम हो ख़ता अश्कों से तर हो कर नज़र-अंदाज़ होती है