निगाह-ए-इल्तिफ़ात अब बद-गुमाँ मा'लूम होती है मिरी हर बात दुनिया को गिराँ मा'लूम होती है तड़प उठते हैं सज्दे रौशनी महसूस करता हूँ जबीं मेरी क़रीब-ए-आस्ताँ मा'लूम होती है क़यामत है जवानी के दिनों का याद आ जाना चमन की सैर भी बार-ए-गराँ मा'लूम होती है ग़म-ओ-अंदोह में ऐ काश सारी ज़िंदगी गुज़रे यही मुझ को हयात-ए-जाविदाँ मा'लूम होती है तरी दिल में नहीं अब ख़ुश्क हैं अश्क-ए-मसर्रत भी हर इक उम्मीद गर्द-ए-कारवाँ मा'लूम होती है निहाँ हैं उन के जल्वे आइना हैराँ है क़िस्मत का नज़र ना-आश्ना-ए-इम्तिहाँ मा'लूम होती है किसी ज़र्रे ने महफ़िल के कोई करवट नहीं बदली अभी बे-कैफ़ मेरी दास्ताँ मा'लूम होती है नज़र जलवों पे है और कुछ नज़र आता नहीं हम को कोई तो चीज़ है जो दरमियाँ मा'लूम होती है जो दिल के राज़ थे क्यूँकर हुए आईना दुनिया पर ज़बान-ए-वक़्त तेरी ही ज़बाँ मा'लूम होती है ज़बान-ए-हाल से जब वक़्त की बेदाद सुनता हूँ मुझे तो 'शौक़' अपनी दास्ताँ मा'लूम होती है