वो दौर क़रीब आ रहा है जब दाद-ए-हुनर न मिल सकेगी उस शब का नुज़ूल हो रहा है जिस शब की सहर न मिल सकेगी पूछोगे हर इक से हम कहाँ हैं और अपनी ख़बर न मिल सकेगी आसाँ भी न होगा घर में रहना तौफ़ीक़-ए-सफ़र न मिल सकेगी ख़ंजर सी ज़बाँ का ज़ख़्म खा के मरहम सी नज़र न मिल सकेगी इस राह-ए-सफ़र में साया-ए-अफ़्गन इक शाख़-ए-शजर न मिल सकेगी जाओगे किसी की अंजुमन में पर उस से नज़र न मिल सकेगी इक जिंस-ए-वफ़ा है जिस को हर-सू ढूँडोगे मगर न मिल सकेगी सैलाब-ए-हवस उमड रहा है इक तिश्ना नज़र न मिल सकेगी