मुँह अँधेरे घर से निकले फिर थे हंगामे बहुत दिन ढला तन्हा हुए और रात भर पिघले बहुत रंज के अंधे कुएँ में रात अब कैसे कटे देखने को दिन में देखे चाँद से चेहरे बहुत फिर भी हम इक दूसरे से बद-गुमाँ क्या क्या रहे झूट हम ने भी न बोला तुम भी थे सच्चे बहुत था इरादा उन के घर से बच के हम निकलें मगर हर क़दम पर उन के घर के रास्ते आए बहुत इन दिनों रहते हैं लोगों से हमें क्या क्या गिले और लगते भी हैं हम को लोग सब अच्छे बहुत पेड़ अपने दश्त में अब हम लगा कर क्या करें धूप ने फैला दिए हैं दूर तक साए बहुत