मुँह अँधेरे तेरी यादों से निकलना है मुझे और फिर माज़ी का पैराहन बदलना है मुझे पर्बतों पर सुब्ह की सी धूप हूँ मैं इन दिनों जानता हूँ अब ढलानों पर फिसलना है मुझे वार से बचना तो है ही वार इक करना भी है और इन के बीच ही रुक कर सँभलना है मुझे मुझ पे ही आ कर टिकीं बेदार आँखें इस लिए बन के जुगनू आस का हर रात जलना है मुझे ऐ मिरी मसरूफ़ियत मुझ को ज़रूरत है तिरी इक पुराने ग़म का सर फिर से कुचलना है मुझे इक उदासी का समुंदर है मिरे अंदर कहीं हाँ उसी में शाम के सूरज सा ढलना है मुझे मैं किसी मुफ़लिस का जी हूँ यूँ नहीं तो यूँ सही बस ज़रा सी बात से ही तो बहलना है मुझे मैं कोई बुत तो नहीं 'आतिश' मुलाएम बर्फ़ का आँच से इक दिन मगर अपनी पिघलना है मुझे