मुझ को इतना तो यक़ीं है मैं हूँ और जब तक ये ज़मीं है मैं हूँ इस से आगे मैं कहाँ तक सोचूँ आदमी जितना ज़हीं है मैं हूँ ये जिसे साथ लिए फिरता हूँ ये कोई और नहीं है मैं हूँ एक छोटा सा महल सपनों का जिस में इक माह-जबीं है मैं हूँ घर के बाहर है कोई मुझ जैसा और जो घर में मकीं है मैं हूँ मेरे मलबे पे खड़े हैं सब लोग देखता कोई नहीं है मैं हूँ