मुझ पर निशाँ लगाइए पहले सवालिए फिर मसअलों को खोलिए और हल निकालिए जज़्बात आ सके हैं कभी इख़्तियार में आँखों की फ़िक्र छोड़िए दिल को सँभालिये वहशत ने मेरी नींद पे पहरे लगा दिए कुछ ख़्वाब मेरी आँख की जानिब उछालिए वहम-ओ-गुमाँ उतार के फेंके हैं और फिर हम ने यक़ीं की ऊन से ख़िरक़े सिला लिए कम पड़ रहा था पहले ही कश्कोल-ए-ज़िंदगी और हम ने अपनी ज़ात के ग़म भी उठा लिए कुछ लोग गाँव छोड़ के शहरों में जा बसे बाक़ी को इंतिज़ार की दीमक ने खा लिए 'फ़ैसल' वो फिर भी आँख पे ज़ाहिर नहीं हुआ पर्दे भी दरमियान से सारे उठा लिए