मुझे मंज़िलों की है जुस्तुजू न किसी डगर की तलाश है जो मिरी नज़र को समझ सके मुझे उस नज़र की तलाश है मुझे पास-ए-दैर-ओ-हरम नहीं मिरी बंदगी है वो बंदगी जहाँ ख़ुद-बख़ुद मिरा सर झुके उसी संग-ए-दर की तलाश है ये जहान-ए-रंज-ओ-अलम तो है यहाँ रोज़-ओ-शब यही ग़म तो है न हो जिस की फिर कोई शाम-ए-ग़म मुझे उस सहर की तलाश है मैं भटक रहा हूँ इधर उधर कोई हम-सफ़र है न राहबर मिरी मंज़िलों से जो ख़ुद मिले उसी रहगुज़र की तलाश है मैं परेशाँ-हाल हूँ इस क़दर कि है चश्म-ए-तर तो हज़ीं जिगर जहाँ चल के दिल को सुकूँ मिले उसी बाम-ओ-दर की तलाश है मैं मिसाल-ए-शम्अ-ए-मज़ार हूँ मैं 'ज़फ़र' का उजड़ा दयार हूँ मैं वही हूँ 'क़ैसर'-ए-ग़म-ज़दा मुझे फिर ज़फ़र की तलाश है