मुझे तो धूप का साया बहुत था मगर रुकता कहाँ चलना बहुत था पलट आई थी जो टकरा के ख़ुद ही मैं उस आवाज़ पर चौंका बहुत था बदल कर भेस आए शाम जैसे सहर के रुख़ पे कल कोहरा बहुत था चटानें चीख़ कर टूटीं तो सोचा मुझे इन से अभी कहना बहुत था ये संदल हो गया ज़ख़्मी बिल-आख़िर यहाँ जो नाग था डसता बहुत था