मुझ को भी बर्क़-ए-हुस्न किसी दिन दिखा के देख मेरा भी ज़र्फ़-ए-इश्क़ ज़रा आज़मा के देख हर मंज़िल-ए-अलम में यूँ ही मुस्कुरा के देख हर मुश्किल-ए-हयात को आसाँ बना के देख दीवानगी-ए-ज़ौक़-ए-तलब को बढ़ा के देख हद-ए-तअ'य्युनात से दामन बचा के देख देख उन को और अपनी नज़र से बचा के देख दीवानगी के होश पे पर्दे गिरा के देख साहिल की राहतें तो तुझे रास आ चुकीं तूफ़ाँ की सम्त अपना सफ़ीना बढ़ा के देख तुझ को अगर सुकूँ की तमन्ना है ज़ीस्त में हर एक ग़म को सीने से अपने लगा के देख मंज़िल पुकारती है तजस्सुस की राह में दो इक क़दम तू और भी आगे बढ़ा के देख तन्क़ीद-ए-मय-कशी का अगर शौक़ है तो फिर वाइज़ कभी 'वकील' की महफ़िल में आ के देख