मुझ को लगता है वो वली की तरह उस की बातें हैं रहबरी की तरह इत्र में डूबी उस की ख़ुशबू थी दिल में उतरा जो चाशनी की तरह हाथ जोड़े हैं क्यों ख़ुदा जाने है अदा उस की आजिज़ी की तरह है अजब लहजा उन फ़क़ीरों का वो नहीं लगते आदमी की तरह तीरगी में भी वो चमकता है हुस्न उस का है रौशनी की तरह उस ने बेगाना जब कहा मुझ को मैं चला आया अजनबी की तरह क्या हुआ उस को फिर ख़ुदा जाने वो महकता था इक कली की तरह इक क़लंदर को जानता हूँ मैं है सुलूक उस का सादगी की तरह देखते थे वो सब तमाशा मिरा बह रहा था मैं जब नदी की तरह मुझ में ऐसा है क्या बता 'अहमद' जो तू पढ़ता है शायरी की तरह