मुझ से कम-कोश को बे-कार उलट जाती है जब वो सय्यारों की रफ़्तार उलट जाती है आइना पीर है शमशीर-ज़नी में उस का उस से लड़ता हूँ तो तलवार उलट जाती है इतना इतरा न तू ख़ुद जिंस की ज़ेबाइश पर वो बिना देखे ही बाज़ार उलट जाती है एक है घाव जो तलवार को खा जाता है एक है नाव जो मंजधार उलट जाती है छाबड़े सर से लुढ़क जाते हैं शहतूत भरे वो झलक हासिल-ए-अश्जार उलट जाती है मैं ने यारों को थमा दी है ये दुनिया-दारी मेरे हाथों से ये हर बार उलट जाती है ख़ौफ़ को सर पे सवारी नहीं करने देना साए के बोझ से दीवार उलट जाती है