मुक़द्दस दर्स-गाहों की हरम की और शिवालों की अंधेरे में क़सम खाती है ये दुनिया उजालों की ज़रा पहचान इन मजबूर इंसानों के चेहरों को जो ग़ैरत के सबब जुरअत नहीं करते सवालों की तुम अपने अहद की बातें कहीं महफ़ूज़ कर लेना मुअर्रिख़ को ज़रूरत पड़ती रहती है हवालों की हमारी शख़्सियत पर दोस्तो पानी न फिर जाए कमी महसूस होती है शिकायत करने वालों की सितारे दिन में निकलेंगे तो उन को कौन पूछेगा अँधेरों की बदौलत क़द्र होती है उजालों की