मुक़य्यद आदमिय्यत की ज़बाँ है ये अह्द-ए-आगही की दास्ताँ है जहाँ गुल यास-ओ-हसरत के खिले हैं हमारे ज़ेहन का वो गुल्सिताँ है कोई सूरज नहीं अपनी नज़र में फ़ज़ा में ख़ौफ़-ओ-दहशत का धुआँ है जला कर राख कर देगा जहाँ को हमारा क़ल्ब जो आतिश-फ़िशाँ है मसर्रत को लगा लेते जिगर से मगर ग़म से हमें फ़ुर्सत कहाँ है