मुख़्तसर ये है हक़ीक़त इश्क़ के आज़ार की उम्र-भर तीमार-दारी की दिल-ए-बीमार की चैन लेने दे दिल-ए-मुज़्तर किसी दम बहर-ए-शग़्ल तू ने ओ कम-बख़्त अब तो ज़िंदगी दुश्वार की हिज्र की शब सोचता हूँ मैं कहाँ हूँ कौन हूँ देखता हूँ ग़ौर से सूरत दर-ओ-दीवार की अब तो जी घबरा गया हूर-ओ-जिनाँ के ज़िक्र से हज़रत-ए-वाइ'ज़ भला हद है कोई तूमार की आह-ओ-ज़ारी की कभी अख़्तर-शुमारी की कभी किस मुसीबत से कटी है रात हिज्र-ए-यार की ख़ूब सोचे हज़रत-ए-वाइ'ज़ जो चुपके पी गए लाज रख ली आप ने जो जुब्बा-ओ-दस्तार की ग़म नहीं कुछ बह गया आँखों से गर ख़ून-ए-जिगर हो गई पूरी ख़ुशी तो दीदा-ए-ख़ूँ-बार की आज क्या समझा है साक़ी ने जो मय देता नहीं मैं ने तौबा इस से पहले भी तो लाखों बार की ऐ असीरान-ए-क़फ़स क्या आएँगे ऐसे भी दिल फिर कभी देखेंगे सूरत हम गुल-ओ-गुलज़ार की अब तो वो हर बात पर कर देते हैं फ़ौरन नहीं पड़ गई है ऐसी कुछ आदत उन्हें इंकार की आज कुछ बरहम थे वो भी और हम भी थे भरे बातों ही बातों में नौबत आ गई तकरार की दे चुकी जब नज़्अ' की हालत में गोयाई जवाब पूछने बैठे हैं ख़्वाहिश आह अब बीमार की हर क़दम पर आबलों से इक नई तकलीफ़ है किस तरह तय होगी मंज़िल वादी-ए-पुर-ख़ार की हो सकी 'इशरत' न कोशिश आह कोई कामयाब हर घड़ी करते रहे तदबीर वस्ल-ए-यार की