मुंतशिर हो गए अफ़्सोस जिगर के टुकड़े लोग तक़्सीम हुए हो गए घर के टुकड़े हद्द-ए-पर्वाज़ से आगे ऐ परिंदे न निकल शौक़-ए-परवाज़ न कर दे तिरे पर के टुकड़े घर से निकलूँगा तो मंज़िल पे रुकूँगा जा कर मुझ को मंज़ूर नहीं अपने सफ़र के टुकड़े किस ने आईने में ये बर्क़-ए-तजल्ली रख दी आइना देखूँ तो होते हैं नज़र के टुकड़े ये मिरे शेर नहीं नूर की क़िंदीलें हैं मैं ने काग़ज़ पे सजाए हैं क़मर के टुकड़े मैं ने बरसों जो उसे ख़ून पिलाया अपना तुम से हो सकते नहीं मेरे हुनर के टुकड़े नाख़ुदा से कहो उकसाए न 'दानिश' मुझ को ज़िद पे आउँगा तो कर दूँगा भँवर के टुकड़े